आदिकवि शब्द 'आदि' और 'कवि' के मेल से बना है। 'आदि' का अर्थ होता है 'प्रथम' और 'कवि' का अर्थ होता है 'काव्य का रचयिता'। वाल्मीकि ने संस्कृत के प्रथम महाकाव्य की रचना की थी जो रामायण के नाम से प्रसिद्ध है। प्रथम संस्कृत महाकाव्य की रचना करने के कारण वाल्मीकि आदिकवि कहलाये। वाल्मीकि एक आदि कवि थे । ये भृगु कुल में उत्पन्न ब्राह्मण थे जिसका प्रमाण उन्होंने स्वयं स्वलिखित रामायण में दिया है।
आदि कवि वाल्मीकि का जीवन परिचय संपादित करें
वाल्मीकि रामायण महाकाव्य की रचना करने के पश्चात आदिकवि कहलाए। आदिकवि भगवान् वाल्मीकि आदिकाव्य श्रीमद्वाल्मीकिरामायणमें स्वयंका परिचय देते हैं , वे किसी दस्यु कुलोत्पन्न नहीं थे ,अपितु ब्रह्मर्षि भृगुके वंशमें उत्पन्न ब्राह्मण थे । रामायणमें भार्गव वाल्मीकिने २४००० श्लोकोंमें श्रीराम उपाख्यान 'रामायण' लिखी ऐसा वर्णन है –
'“संनिबद्धं हि श्लोकानां चतुर्विंशत्सहस्र कम् ! उपाख्यानशतं चैव भार्गवेण तपस्विना !! ( वाल्मीकिरामायण ७/९४/२५)' महाभारतमें भी आदिकवि वाल्मीकि को भार्गव (भृगुकुलोद्भव) कहा है , और यही भार्गव रामायणके रचनाकार हैं – '“श्लोकश्चापं पुरा गीतो भार्गवेण महात्मना ! आख्याते रामचरिते नृपति प्रति भारत !!" '(महाभारत १२/५७/४०) शिवपुराणमें यद्यपि उनको जन्मान्तरका चौर्य वृत्ति करने वाला बताया है तथापि वे भार्गव कुलोत्पन्न थे । भार्गव वंशमें लोहजङ्घ नामक ब्राह्मण थे ,उन्हीका दूसरा नाम ऋक्ष था । ब्राह्मण होकर भी चौर्य आदि कर्म करते थे और श्रीनारदजीकी सद् प्रेरणासे पुनः तपके द्वारा महर्षि हो गये । “भार्गवान्वयसम्भवः !! लोहजङ्घो द्विजो ह्यासीद् ऋक्षनामोन्तरो हि स: ! ब्राह्मीं वृत्तिं परित्यज्य चोर कर्म समाचरेत् ! नारदेनोपदिष्टस्तु तपोनिष्ठां समाश्रितः !!
इत्यादि वचनोंसे भृंगु वंश में उत्पन्न लोहजगङ्घ ब्राह्मण जिसे ऋक्ष भी कहते थे , ब्राह्मण वृत्ति त्यागकर चोरी करने लगे थे , फिर नारदजीकी प्रेरणासे तप करके पुनः ब्रह्मर्षि हो गये । २४ वे त्रेतायुगमें भगवान् श्रीराम हुए तब रामायणकी रचनाकर आदिकवि के रूपमें प्रसिद्ध हुए । विष्णुपुराणमें इन्हीं भृगुकुलोद्भव ऋभु वाल्मीकिको २४ वे द्वापरयुगमें वेदोंका विस्तार करने वाले २४वे व्याजजी कहा है – “ऋक्षोऽभूद्भार्गववस्तस्माद्वाल्मीकिर्योऽभिधीयते (विष्णु०३/३/१८) । यही भार्गव ऋभु २४ वे व्यासजी पुनः ब्रह्माजीके पुत्र प्राचेतस वाल्मीकि हुए । श्रीमद्वाल्मीकिरामायणमें वाल्मीकि भगवान् श्रीरामचन्द्रको अपना परिचय देते हैं – “प्रचेतसोऽहं दशमः पुत्रो राघवनन्दन ! (वाल्मीकिरामायण ७/९६/१८) स्वयं को प्रचेताका दशवाँ पुत्र वाल्मीकि कहा है । ब्रह्मवैवर्तपुराणमें कहा है – ” कति कल्पान्तरेऽतीते स्रष्टु: सृष्टिविधौ पुनः ! य: पुत्रश्चेतसो धातु: बभूव मुनिपुङ्गव: !! तेन प्रचेता इति च नाम चक्रे पितामह: ! – अर्थात् कल्पान्तरोंके बीतने पर सृष्टाके नवीन सृष्टि विधानमें ब्रह्माके चेतस से जो पुत्र उत्पन्न हुआ , उसे ही ब्रह्माके प्रकृष्ट चित्तसे आविर्भूत होनेके कारण प्रचेता कहा गया है ।
इसीलिए ब्रह्माके चेतससे उत्पन्न दशपुत्रोंमें वाल्मीकि प्राचेतस प्रसिद्ध हुए । मनु स्मृतिमें वर्णन है ब्रह्माजीने प्रचेता आदि दश पुत्र उत्पन्न किये – “अहं प्रजाः सिसृक्षुस्तु तपस्तप्त्वा सुदुश्चरम् ! पतीत् प्रजानामसृजं महर्षीनादितो दश !! मरीचिमत्र्यङ्गिरसौ पुलसत्यं पुलहं क्रतुम् ! प्रचेतसं वसिष्ठं च भृगुं नारदमेव च !! (मनु०१/३४-३५) भगवान् वाल्मीकि जन्मान्तरमें भी ब्राह्मण (भार्गव) थे और आदिकवि वाल्मीकिके जन्ममें भी (प्राचेतस) ब्राह्मण थे ! शिवपुराणमें कहा है प्राचेतस वाल्मीकि ब्रह्माके पुत्रने श्रीमद्रामायणकी रचनाकी । ” पुरा स्वायम्भुवो ह्यासीत् प्राचेतस महाद्युतिः ! ब्रह्मात्मजस्तु ब्रह्मर्षि तेन रामायणं कृतम् !! ”
एक बार वाल्मीकि एक क्रौंच पक्षी के जोड़े को निहार रहे थे। वह जोड़ा प्रेमालाप में लीन था, तभी उन्होंने देखा कि बहेलिये ने प्रेम-मग्न क्रौंच (सारस) पक्षी के जोड़े में से नर पक्षी का वध कर दिया और मादा पक्षी विलाप करने लगी। उसके इस विलाप को सुन कर वाल्मीकि की करुणा जाग उठी और द्रवित अवस्था में उनके मुख से स्वतः ही यह श्लोक फूट पड़ा।
मा निषाद प्रतिष्ठां त्वमगमः शाश्वतीः समाः।
यत्क्रौंचमिथुनादेकम् अवधीः काममोहितम्॥'
हे दुष्ट, तुमने प्रेम मे मग्न क्रौंच पक्षी को मारा है। जा तुझे कभी भी प्रतिष्ठा की प्राप्ति नहीं हो पायेगी। और तुझे भी वियोग झेलना पड़ेगा।
उसके बाद उन्होंने प्रसिद्ध महाकाव्य "रामायण" (जिसे कि "वाल्मीकि रामायण" के नाम से भी जाना जाता है) की रचना की और "आदिकवि वाल्मीकि" के नाम से अमर हो गये।
अपने महाकाव्य "रामायण" में अनेक घटनाओं के घटने के समय सूर्य, चंद्र तथा अन्य नक्षत्र की स्थितियों का वर्णन किया है। इससे ज्ञात होता है कि वे ज्योतिष विद्या एवं खगोल विद्या के भी प्रकाण्ड ज्ञानी थे।
अपने वनवास काल के मध्य "राम" वाल्मीकि के आश्रम में भी गये थे।
देखत बन सर सैल सुहाए। वाल्मीक आश्रम प्रभु आए। महर्षि वाल्मीकि को " श्रीबराम" के जीवन में घटित प्रत्येक घटनाओं का पूर्णरूपेण ज्ञान था।
== सतयुग, त्रेता और द्वापर तीनों कालों में वाल्मीकि का उल्लेख मिलता है वो भी वाल्मीकि नाम से ही। रामचरित्र मानस के अनुसार जब राम वाल्मीकि आश्रम आए थे तो वो आदिकवि वाल्मीकि के चरणों में दण्डवत प्रणाम करने के लिए जमीन पर डंडे की भांति लेट गए थे और उनके मुख से निकला था "तुम त्रिकालदर्शी मुनिनाथा, विश्व बद्रर जिमि तुमरे हाथा।" अर्थात आप तीनों लोकों को जानने वाले स्वयं प्रभु हो। ये संसार आपके हाथ में एक बेर के समान प्रतीत होता है।[5]
महाभारत काल में भी वाल्मीकि का वर्णन मिलता है जब पांडव कौरवों से युद्ध जीत जाते हैं तो द्रौपदी यज्ञ रखती है,जिसके सफल होने के लिये शंख का बजना जरूरी था और कृष्ण सहित सभी द्वारा प्रयास करने पर भी पर यज्ञ सफल नहीं होता तो कृष्ण के कहने पर सभी वाल्मीकि से प्रार्थना करते हैं। जब वाल्मीकि वहां प्रकट होते हैं तो शंख खुद बज उठता है और द्रौपदी का यज्ञ सम्पूर्ण हो जाता है। इस घटना को कबीर ने भी स्पष्ट किया है "सुपच रूप धार सतगुरु आए। पांडों के यज्ञ में शंख बजाए।
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