मन न माने किसी भी ज्ञान से ,उसको जानो केवल ध्यान से ।

लोग मेरे पास आते हैं और पूछतें हैं, "एक शांत मन को कैसे पाया जाए?" मैं उनसे कहता हूँ, "शांत मन,एसा कुछ भी नहीं पाया जाता है, इसके बारे में कभी कुछ सुना ही नहीं।"


मन कभी शांत नहीं होता; अ-मन शांत होता है। मन अपने आप में कभी भी शांत, मौन नहीं होता। क्योंकि मन का स्वभाव ही है तनावग्रस्त होना, उलझन में पड़ रहना। मन कभी भी स्पष्ट नहीं होता, उसे स्पष्टता नहीं मिल सकती, क्योंकि मन स्वभाव से उलझन है, अस्पष्टता है। स्पष्टता तभी संभव है जब मन ना हो; मौन तभी संभव है जब मन ना हो, इसलिय कभी भी शांत मन को पाने की चेष्ठा ना करें। यदि तुम ऐसा करते हो, तो तुम आरम्भ से ही एक असंभव आयाम में जा रहे हो।


सदा स्मरण रखें कि जो कुछ भी तुम्हारे आस-पास घट रहा है उन सब की जड़े तुम्हारे मन में निहित है। मन ही सदा कारण होता है। वह एक प्रक्षेपण करने वाला यंत्र है, और बाहर केवल पर्दे ही पर्दे हैं--तुम उन पर्दों पर अपने आप को प्रक्षेपित कर लेते हो। यदि तुम्हे यह भद्दा प्रतीत होता है तो अपने मन को परिवर्तित कर लो। यदि तुम्हेप्रतीत होता है कि जो कुछ भी मन से आ रहा है वह नारकीय है और भयानक है, तो मन को गिरा दो। मन पर कार्य करना है, परदे पर नहीं; उस पर बार-बार चित्रकारी कर के उसे बदलते मत रहो। मन पर कार्य करो। 


परंतु एक समस्या है, क्योंकि तुम सोचते हो कि तुम मन हो । तो तुम इसे गिरा कैसे सकते हो? तो तुम्हे लगता है कि तुम सब-कुछ गिरा सकते हो, सबकुछ बदल सकते हो, उसे फिर से रंग सकते हो, फिर से संवारसकते हो, पुनर्व्यवस्थित कर सकते हो, किन्तु तुम खुद को कैसे गिरा सकते हो? यही सारे उपद्रव की जड़ है।


तुम मन नहीं हो, तुम मन के पार हो। यह सत्य है कि तुमने उसके साथ तादात्म बना लिया है, किन्तु तुम मन हो नहीं।


और यही ध्यान का उद्देश्य है: तुम्हे छोटी झलकियां दिखाना कि तुम मन नहीं हो। यदि कुछ क्षण के लिए भी मन ठहर जाए, तुम तब भी वहीँ के वहीँ हो! इसके विपरीत, तुम और भी ज्यादा उपस्थित होते हो, तुम्हारी उपस्थिति और भी ज्यादा प्रवाहमान हो जाती है।


मन का ठहर जाना ऐसा होता है जैसे एक जल-निकास जोलगातार तुम्हे खाली कर था, रुक जाये। अचानक तुम ऊर्जा से भर गए। तुम और संवेदनशील हो गए।


यदि तुम क्षण भर के लिए भी इस बात के प्रति सचेत हो जाओ कि मन नहीं है, केवल "मैं हूँ", तुम सत्य के भीतरी केंद्र तक पहुँच गए। तब मन को गिरा देना सरल हो जाएगा। तुम मन नहीं हो अन्यथा तुम अपने आप को गिराओगे कैसे? पहले तादात्म को गिराना होगा, तब मन को गिराया जा सकता है।


जब मन के साथ सारे तादात्म गिरा दिए जाये, जब तुम पर्वत पर बैठे एक द्रष्टा रह जाते हो और मन अँधेरी घाटियों कि गहराइयों में छूट जाता है। जब तुम सूर्य से प्रकाशित शिखरों पर होते हो, बस शुद्ध साक्षी, द्रष्टा मात्र, देखते हुए, परंतु किसी भी चीज़ से कोई तादात्म्य ना बनाते हुए--अच्छा या बुरा, पापी या पुण्यात्मा, यह या वह, केवल एक शुभ उपस्तिथी—एक श्वांस, एक धड़कता हुआ ह्रदय, उस द्रष्टा भाव में सब प्रश्न मिट जातें हैं। मन मिट जाता है, पिघल जाता है, भाप बन कर उड़ जाता है। तुम बस एक शुद्ध आत्मा की तरह रह जाते हो, एक शुद्ध अस्तित्व--एक श्वास, एक ह्रदय की धड़कन, पूर्णता क्षण में, ना अतीत, ना भविष्य इसलिए वर्तमान भी नहीं ।


मन भ्रामक है--जो होता तो नहीं है पर दिखता है, और इतना दिखता है कि तुम सोचते हो कि तुम मन हो। मन माया है, मन मात्र एक स्वप्न है, मन एक प्रक्षेपण है...एक पानी का बुलबुला--जिस में कुछ भी नहीं है, परन्तु ये एक पानी का बबूला नदी में तैरता प्रतीत होता है । सूरज बस उग ही रहा है, किरने बुलबुले में प्रवेश करती हैं और इंद्रधनुष निर्मित हो जाता है और उस में कुछ भी नहीं है। जब तुम बुलबुले को छूते हो तो वहटूट जाता है और सब-कुछ मिट जाता है—वो इंद्रधनुष, वो सौन्दर्य--कुछ भी नहीं बचता। केवल शुन्यता ही अनंत शून्य के साथ एक हो जाती है। वहां बस एक दीवार थी, एक बुलबुले कि दीवार। तुम्हारा मन एक बस एक बुलबुले कि दीवार है—भीतर, तुम्हारा शून्य है; बाहर, मेरा शून्य। यह मात्र एक बुलबुला है: छेद दो, और मन विदा हो जाएगा।


तुम कहते हो, "आप मन के इतने विरुद्ध क्यों हैं?" मैं मन के विरुद्ध में नहीं हूँ; मैं केवल एक तथ्यगत बात कह रहा हूँ--मन क्या है। यदि तुम देख लो कि मन क्या है तो, तुम इसे गिरा दोगे। जब मैं कहता हूँ कि "मन को गिरा दो," तब मैं यह मन के विरोध में नहीं कह रहा। मैं तुम्हे केवल यह स्पष्ट कर रहा हूँ कि मन है क्या, इसने तुम्हारे साथ क्या किया है, कैसे यह एक बंधन बन गया है।


इसे प्रयोग या दुरूपयोग में लाने का प्रश्न नहीं है। मन अपने आप में एक समस्या है, न कि इसका प्रयोग या दुरूपयोग। और स्मरण रहे, तुम मन का प्रयोग तब तक नहीं कर सकते जब तक कि तुम्हे यह न पता चल जाए कि मन के बिना कैसे हुआ जाए। केवल वे ही लोग जो मन के बिना होना जान लेते हैं, मन का उपयोग करने में सक्षम हो जाते हैं, नहीं तो मन ही उनका उपयोग करता है। यह मन ही है जो तुम्हारा उपयोग कर रहा है, परन्तु मन बहुत चालाक है, वह तुम्हे धोका दिए चला जाता है। वह कहे चला जाता है, "तुम मेरा उपयोग कर रहे हो।"


यह मन है जो तुम्हारा उपयोग कर रहा है। तुम्हारा उपयोग हो रहा है; मन तुम्हारा मालिक बन गया है, तुम उसके गुलाम, परन्तु मन बहुत चालाक है, वह तुम्हारी खुशामद करता चला जाता है। वह कहता है "मैं केवल एक उपकरण हूं, तुम मेरे मालिक हो।" लेकिन देखो, दिमाग की व्यवस्था पर गौर करो, यह कैसे आपका इस्तेमाल करते जाता है। तुम्हे लगता है कि तुम इसका उपयोग कर रहे हो। तुम उसका उपयोग तभी कर सकते हो जब तुम्हे पता हो कि तुम इससे पृथक हो; वर्ना तुम इसका उपयोग कैसे करोगे? तुम इससे तादात्म बनाए हुए हो।


ओशो,
क्या मन और चेतना दो अलग वस्तुएं हैं? या फिर वो शांत मन, या एकाग्र मन, "चेतना" किसे कहतें हैं?


यह तुम्हारी परिभाषा पर निर्भर करता है। पर मेरे अनुसार मन वह हिस्सा है जो तुम्हे दिया गया है। वह तुम्हारा नहीं है। मन का अर्थ है उधार लिया गया, मन का अर्थ है वह जो बनाया गया हो, मन का अर्थ है वह जो समाज ने तुम में भर दिया है। वह तुम नहीं हो।


चैतन्य तुम्हारा स्वभाव है; मन बस एक परिधि है, समाज द्वारा तुम्हारे आस-पास निर्मित की हुई, तुम्हारी संस्कृति द्वारा, तुम्हारी शिक्षा द्वारा।


मन का अर्थ है संस्कार। तो तुम्हारे पास एक हिन्दू मन हो सकता है, पर तुम्हारे पास एक हिन्दू चेतना नहीं हो सकती। तुम्हारे पास एक ईसाई मन हो सकता है, पर तुम्हारे पास एक ईसाई चेतना नहीं हो सकती। चेतना एक होती है: वह बंट नहीं सकती। मन अनेक होतें हैं। समाज अनेक होतें हैं, संस्कृतियाँ, धर्म अनेक होतें हैं, और हर संस्कृति हर समाज, एक अलग मन निर्मित करता है। मन समाज का उपोत्पाद है। और जब तक यह मन मिट नहीं जाता तुम भीतर प्रवेश नहीं कर सकते; तुम मूलतया अपने स्वभाव को नहीं जान सकते, प्रमाणिक रूप से तुम्हारा क्या आस्तित्व है, तुम्हारा चैतन्य क्या है तुम नहीं जान सकते। ध्यान के लिए संघर्ष करना मन के विरुद्ध संघर्ष करना है। मन कभी ध्यानपूर्ण नहीं होता और न ही मन कभी शांत होता है, तो "शांत-मन" कहना एक निरर्थक बात है, और बेतुकी भी। यह ऐसा कहना है जैसे कि "एक स्वस्थ रोग।" यह अर्थहीन है। क्या कभी कोई स्वस्थ रोग जैसी भी चीज़ हो सकती है? रोग तो रोग है, और स्वास्थ्य रोग का आभाव है।


शांत मन जैसी कोई चीज़ नहीं होती। जब शान्ति होती है तब मन नहीं होता। जब मन होता है तब शान्ति नहीं होती। मन, एक तरह से उपद्रव है, एक रोग। ध्यान है अ-मन की चित्त-दशा, मौन मन की नहीं, स्वस्थ मन की नहीं, एकाग्र मन की नहीं, नहीं। ध्यान अ-मन की स्थिति है: तुम्हारे भीतर कोई समाज नहीं, कोई संस्कृति नहीं- बस तुम, तुम्हारी शुद्ध चेतना के साथ।


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