मनुष्य चेतना के दो आया है: एक मूर्च्छा, एक अमूर्च्छा। मूर्च्छा का अर्थ है सोये-सोये जीना; बिना होश के जीना। अमूर्च्छा का अर्थ है, होशपूर्वक जीना; जाग्रत, विवेकपूर्ण। मूर्च्छा का अर्थ है, भीतर का दीया बुझा है। अमूर्च्छा का अर्थ है, भीतर का दीया जला है।
मूर्च्छा में रोशनी बाहर होती है। बाहर की रोशनी से ही आदमी चलता है। जहां इंद्रियां ले जाती हैं, वहीं जाता है। इंद्रियों की कामना ही खुद की कामना बन जाती है। क्योंकि खुद का कोई पता ही नहीं। मन जो सुझा देता है, वही जीवन की शैली हो जाती है। क्योंकि अपने स्वरूप का तो कोई बोध नहीं। लोग जो समझा देते हैं, समाज जो बता देता है, वहीं आदमी चल पड़ता है क्योंकि न तो अपनी कोई जड़ें होती हैं अस्तित्व में, न अपना भान होता है। मैं कौन हूं, इसका कोई पता ही नहीं।
तो जीवन ऐसे होता है, जैसे नदी में लकड़ी का टुकड़ा बहता है। जहां लहरें ले जाती हैं, चला जाता है। जहां धक्के हवा के पहुंचा देते हैं, वहीं पहुंच जाता है। अपना कोई व्यक्तित्व नहीं, निजता नहीं। जीवन एक भटकन है।
निश्चित ही ऐसी भटकन में कभी जिल नहीं आ सकती। मंजिल तो सुविचारित कदमों से पूरी करनी पड़ती है। भटकाव बहुत हो सकता है यात्रा नहीं हो सकती। यात्रा का अर्थ है कि तुम्हें पता हो तुम कौन हो; कहां हो! कहां जा रहे हो! क्यों जा रहे हो! होशपूर्वक ही यात्रा हो सकती है। होशपूर्वक ही तीर्थयात्रा हो सकती है। इसलिए ज्ञानियों ने होश को ही तीर्थ कहा है।
अमूर्च्छित चित्त, जागा हुआ चित्त बिलकुल दूसरे ही ढंग से जीता है। उसके जीवन की व्यवस्था आमूल से भिन्न होती है। वह दूसरों के कारण नहीं चलता, वह अपने कारण चलता है। वह सुनता सबकी है। वह मानता भीतर की है। वह गुलाम नहीं होता। भीतर की मुक्ति को ही जीवन में उतारता है। कितनी ही अड़चन हो, लेकिन उस मार्ग पर ही यात्रा करता है जो पहुंचायेगा। और कितनी ही सुविधा हो, उस मार्ग पर नहीं जाता, जो कहीं नहीं पहुंचायेगा।
क्योंकि उस सुविधा का क्या अर्थ? मार्ग कितना ही सुंदर हो, कंटकाकीर्ण न हो, चोर-लुटेरे न हों, मार्ग पर, सब सुरक्षा हो, सुविधा हो लेकिन अगर मार्ग कहीं पहुंचाता ही न हो, तो उस मार्ग की सुविधा और सौंदर्य का क्या करिएगा? मार्ग कंटकाकीर्ण हो, राह लुटेरों से भरी हो, जंगली जानवरों का भय हो, लेकिन कहीं पहुंचाता हो, तो जाने योग्य है।
अमूर्च्छित व्यक्ति का जीवन भटकाव नहीं, एक सुनियोजित यात्रा है। लेकिन वह नियोजन कौन देगा? समाज उस नियोजन को नहीं दे सकता। समाज तो अंधों की भीड़ है। वह तो मूर्च्छित लोगों का समूह है। अगर तुमने समाज की सुनी, तो तुम अंधेरे में ही भटकते रहोगे। भीड़ तो बोधपूर्ण नहीं है। हो भी नहीं सकती। कभी-कभी कोई एकाध व्यक्ति अनेकों में बोध को उपलब्ध होता है। तो भीड़ तो बुद्धों की नहीं है।
अमूर्च्छित व्यक्ति अपने भीतर अपने जीवन की विधि खोजता है। अपने होश में अपने आचरण को खोजता है। अपने अंतःकरण के प्रकाश से चलता है। कितना ही थोड़ा हो अंतःकरण का प्रकाश, सदा पर्याप्त है। इतना थोड़ा हो कि एक ही कदम पड़ता हो, तो भी काफी है। क्योंकि दुनिया में कोई भी दो कदम तो एक साथ चलता नहीं।
छोटे से छोटा दीया भी इतना तो दिखा ही देता है, कि एक कदम साफ हो जाए। एक कदम चल लो, फिर और एक कदम दिखाई पड़ जाता है। कदम-कदम करके हजारों मील की यात्रा पूरी हो जाती है।
अमूर्च्छित व्यक्ति विद्रोही होता है। अमूर्च्छित व्यक्ति एक-एक क्षण, पल-पल एक ही बात को साधता है; और वह बात यह है, कि कुछ भी मुझसे ऐसा न हो जाए, जो मूर्च्छा को बढ़ाए, मूर्च्छा कसे ग्रहण करे। ध्यान रखना, एक-एक बूंद पानी की गिरती है, चट्टानें टूट जाती हैं। एक-एक बूंद होश की गिरती है, और तुम्हारी जन्मों-जन्मों की चट्टान हो मूर्च्छा की, निद्रा की टूट जाती है। लेकिन एक-एक बूंद गिरनी चाहिए।
तो प्रतिपल अमूर्च्छित व्यक्ति की चेष्टा यही होती है, कि हर क्षण का उपयोग एक ही संपदा को पाने में कर लिया जाए। वह यह, कि मेरे भीतर का विवेक प्रगाढ़ हो, जागे।
मूर्च्छित चित्त की तीन अवस्थाएं हैं, जिन्हें हम जानते हैं।
एक, जिसे हम जाग्रत कहते हैं; जो कि शब्द उचित नहीं है। क्योंकि मूर्च्छित व्यक्ति जागेगा कैसे? उसका जागरण नाममात्र का जागरण है। कहने भर का जागरण है। सुबह सूरज उगता है, पशु-पक्षी जाग आते हैं, पौधे जाग आते हैं, तुम भी जाग जाते हो। क्या पशु पक्षी जाग्रत हैं; क्या पौधे जाग्रत हैं? तुम भी नहीं हो। सिर्फ शरीर का विश्राम पूरा हो गया, इसलिए तुम उठते हो, चलते हो, बैठते हो। ऐसा लगता है, जैसे जागे हो। लेकिन यह सिर्फ लगना मात्र है। इसका वास्तविक जागरण से कोई दूर का भी संबंध मुश्किल से बनता है।
मैंने सुना है, कि मुल्ला नसरुद्दीन को किसी ग्रामीण परिचित ने, किसान ने गांव से एक मुर्गी भेज दी भेंट में। जो आदमी मुर्गी लेकर आया था, स्वभावतः नसरुद्दीन ने उसका काफी स्वागत किया। मुर्गी का शोरबा बनवाया। उसे शोरबा पिलाया। वह आदमी बड़ा प्रसन्न हुआ। उसने जाकर गांव में खबर कर दी, आदमी बहुत अच्छा है। और अतिथि को तो बिलकुल देवता मानता है।
फिर तो गांव से लोगों का आना शुरू हो गया। दूसरे ही दिन दूसरा आदमी मौजूद हो गया। नसरुद्दीन ने पूछा, आप कौन? उसने कहा, कि जिसने मुर्गी भेजी थी, उसका दूर का रिश्तेदार हूं। उसका भी नसरुद्दीन ने स्वागत किया। घर आया आदमी! फिर कितने ही दूर का रिश्तेदार हो, रिश्तेदार ही है उसी का, जिसने मुर्गी भेजी थी।
लेकिन फिर बात सीमा के बाहर होने लगी। रिश्तेदारों के रिश्तेदार आने लगे। रिश्तेदारों के रिश्तेदारों के मित्र आने लगे। रिश्तेदारों के रिश्तेदारों के मित्रों के मित्र आने लगे। पत्नी बेचैन हो गई। उसने कहा, यह मुर्गी तो एक अपशगुन सिद्ध हुई। हम इस इनकार ही कर देते। यह तो पूरा गांव चला आ रहा है। नसरुद्दीन ने बहुत सोचा। कुछ करना ही पड़ेगा। और दूसरे दिन सुबह फिर एक आदमी खड़ा है। आप कौन हैं? उसने कहा, कि जिसने मुर्गी भेजी थी, उसके रिश्तेदारों के रिश्तेदारों के मित्रों का मित्र हूं। नसरुद्दीन ने कहा, आइए। स्वागत है।
लेकिन वह आदमी बड़ा हैरान हुआ, जब भोजन उसे कराया गया तो सिर्फ कुनकुना पानी था शोरबे के नाम पर। उस आदमी ने कहा, और सब तो ठीक है, लेकिन मैंने बड़ी चर्चा सुनी थी आपके आतिथ्य की। और यह तो कुनकुना पानी है। नसरुद्दीन ने कहा, माफ करिए। कुनकुना पानी नहीं है। मुरगी के शोरबे का शोरबे का शोरबे का शोरबा है।
To be continue.......
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